sabse pahle kya hota hai jab bhagwan kripa karte hai – jaaniye rahasya
क्या आपने कभी सोचा है कि जब ब्रह्मांड की सर्वोच्च शक्ति, जिसे हम ईश्वर, भगवान या परमात्मा कहते हैं, किसी पर अपनी असीम कृपा बरसाने वाली होती है, तो सबसे पहले क्या होता है?
क्या आपने कभी सोचा है कि जब ब्रह्मांड की सर्वोच्च शक्ति, जिसे हम ईश्वर, भगवान या परमात्मा कहते हैं, किसी पर अपनी असीम कृपा बरसाने वाली होती है, तो सबसे पहले क्या होता है?
जानिए भगवान की कृपा के लक्षण, संकेत और जीवन में होने वाले अद्भुत बदलाव। पढ़ें पूरा आध्यात्मिक ब्लॉग
हमारे मन में एक सीधी साधी छवी बनी हुई है। कृपा का अर्थ है सुख, समृद्धि, सफलता| कृपा का अर्थ है कि हमारे सारे दुख मिट जाएंगे, हमारी हर प्रार्थना सुन ली जाएगी, और हमारा जीवन फूलों की सेज बन जाएगा। हम यही तो मांगते हैं है ना।
लेकिन क्या हो अगर मैं आप से कहूं कि ये पूरा सच नहीं है। क्या हो अगर मैं कहूं कि ईश्वर की कृपा का पहला संकेत वो नहीं है जो आप सोचते हैं। क्या हो अगर उसकी कृपा का पहला सपर्श एक मीठी थपकी नहीं बल्कि एक झकझोर देने वाला धक्का हो। आज हम उस रहस्य से परदा उठाएंगे जो सदियों से हमारे धर्म ग्रंथों में छिपा है एक ऐसा सत्य जिसे जान कर आपके पैरों तले जमीन खिसक सकती है|
एक ऐसा ज्ञान जो शायद आपको कुछ समय के लिए पीड़ा दे| आपको अकेला महसूस कराए लेकिन अंत में आपको उस परम सत्य के दर्शन कराएगा जिसकी खोज हर आत्मा कर रही है|
आज हम जानेंगे कि भगवान जिस पर सच में कृपा करते हैं सबसे पहले उसके साथ क्या करते हैं? इस यात्रा के अंत तक मेरे साथ बने रहिएगा क्योंकि ये यात्रा आपके जीवन को देखने का नजरिया हमेशा के लिए बदल सकती है|
कल्पना कीजिये एक कुम्हार, उसके सामने मिटटी का एक ढेर पड़ा है वो उस मिटटी में एक सुन्दर घड़े की छवि देखता है|
अब वो क्या करेगा ? क्या वो उस मिटटी को सहलायेगा, फूल चढ़ाएगा ? नहीं ! वो सबसे पहले उस मिटटी को उठाएगा, उसे पत्थर पर पटकेगाउसे अपने पैरों से रौंदेगा, उसमें पानी डाल कर उसे गूंथेगा| वो उसे तब तक मसलेगा, जब तक उस मिट्टी का हर कण उसका अपना पुराना स्वरूप भूल न जाए, मिट्टी के लिए ये प्रक्रिया कितनी पीड़ादायक होगी?
उसे लगेगा कि उसका अस्तित्व मिटाया जा रहा है, उसे लगेगा कि ये कोई कृपा नहीं, बल्कि एक क्रूर अत्याचार है, और फिर जब मिट्टी पूरी तरह से तैयार हो जाती है, तब कुम्हार उसे अपनी घूमती हुई चाक पर रखता है। उसे एक आकार देना शुरू करता है।
उसे बाहर से थप थपाता है और अंदर से सहारा देता है। और अंत में वो उसे आग की धधकती हुई भट्टी में डाल देता है। सोचिए उस मिट्टी पर क्या गुजर रही होगी? पहले रौंदा गया, फिर मसला गया और अब आग में तपाया जा रहा है।
उसे तो यही लगेगा कि उसका अंत निश्चित है। लेकिन क्या ये अंत है? नहीं!
ये एक रूपांतरण है। ये एक सामान्य मिट्टी से एक सुन्दर, उपयोगी और मूल्यवान घड़ा बनने की प्रक्रिया है| आग में तपकर ही वो घड़ा मजबूत बनता है, अमर हो जाता है|
ठीक यही प्रक्रिया परमात्मा उनके साथ अपनाते हैं, जिन्हे वो अपने सबसे समीप लाना चाहते हैं| जिन पर वो अपनी परम कृपा बरसाना चाहते हैं| जब भगवान की कृपा आप पर होने वाली होती है, तो सबसे पहले वो आपके जीवन से उन चीजों को छीनना शुरू करते हैं जिनका आपको अभिमान है।
वो चीजें, जो आपको लगता है कि आपकी हैं। आपका धन, आपका पद, आपका सम्मान, आपके रिश्ते, आपकी बुद्धि, आपकी सुन्दरता। एक-एक करके वो सब कुछ आपसे दूर होने लगता है जिसपर आप टिके हुए थे।
क्यूं? क्योंकि जब तक आपके दोनों हाथ झूठे खिलोनों से भरे होंगे, तब तक आप उस परमानन्द परमसत्य के हीरे को कैसे थाम सकेंगे? जब तक आपका घड़ा कूड़े कचरे से भरा रहेगा, तब तक तब तक उसमें अमृत कैसे भरा जाएगा?
ये जीवन का सबसे कठिन और दर्दनाक चरण होता है। आपको लगता है कि भगवान आपसे रुष्ट हो गए हैं। आपको लगता है कि आपकी पूजा पाठ आपकी भक्ति सब व्यर्थ हो गई। आप चिलाते हैं, रोते हैं शिकायत करते हैं, आप पूछते हैं- हे प्रभू मैंने ऐसा क्या किया जो मुझे ये सब सहना पड़ रहा है? मैं तो हमेशा तुम्हारी शरण में रहा और उस समय आपको चारों और से केवल मौन सुनाई देता है।
कोई जवाब नहीं आता, ये वो समय होता है, जब दुनिया आपकी तरफ देख कर हंसती है, लोग कहते हैं, बड़ा भक्त बनता था, देखो भगवान ने ही उसे त्याग दिया। आपके अपने, जिन्हे आप सोचते थे, कि हर हाल में आपका साथ देंगे, वो भी धीरे धीरे किनारा कर लेते हैं। आप नितान्त अकेले रह जाते हैं, ये अकेलापन, ये शून्य, यही भगवान की कृपा का पहला स्पर्श है। ये वो दिव्य अकेलापन है, जहां आपको पहली बार अपने अंदर झांकने का मौका मिलता है।
जब बाहर के सारे सहारे टूट जाते हैं, तब पहली बार आत्मा अपने असली सहारे, यानि परमात्मा को खोजने के लिए छटपटाती है। जब दुनिया का हर शोर शांत हो जाता है, तब पहली बार आपको अपने अंदर की ध्वनि सुनाई देती है।
ये वो चरण है, जिसे वैराग्य की शुरुवात कहते हैं। वैराग्य का अर्थ संसार से भागना नहीं है। वैराग्य का अर्थ है संसार में रहते हुए भी यह जान लेना कि यहां कुछ भी स्थाई नहीं है, कुछ भी आपका नहीं है। यह समझ कि आप केवल एक यात्री हैं और ये दुनिया एक सराय है।
जब भगवान आपकी बाहरी संपदा छीनते हैं, तो वो आपको आंतरिक संपदा देने की तैयारी कर रहे होते हैं। जब वो आपसे सांसारिक मान सम्मान छीनते हैं, तो वो आपको आत्म सम्मान में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं।
जब वो आपके इंसानी रिश्ते तोड़ते हैं तो वो आपसे अपना दिव्य रिश्ता जोड़ना चाहते हैं। लेकिन हम ये समझ नहीं पाते हम उस मिट्टी की तरह विलाप करते हैं जिसे रौंदा जा रहा है। हम उस सोने तरह चीखते हैं जिसे आग में तपाया जा रहा है। हमें लगता है कि हमारा नाश हो रहा है जबकि वास्तव में हमारा निर्माण हो रहा होता है।
ये पहली और सबसे बड़ी परीक्षा है, परीक्षा इस बात की कि क्या आप तब भी ईश्वर पर भरोसा रखते हैं, जब वो आपकी हर मनचाही चीज आप से छीन रहे हो। क्या आप तब भी उनके प्रेम पर विश्वास करते हैं, जब उनका व्यवहार आपको सबसे क्रूर लग रहा हो।
राजा हरिश्चन्द्र को याद कीजिए। सत्य के मार्क पर चलने वाले दानवीर राजा। जब विधाता ने उनकी परीक्षा लेनी चाही तो क्या किया?
उनका राजपाट छीन लिया। परिवार बिछड़ गया। पत्नी को बेचना पड़ा, पुत्र की मृत्यु हो गई और स्वयं उन्हें एक चांडाल के यहां शम्शान में काम करना पड़ा।
सोचिये उस व्यक्ति के मन की स्थिति, कहां चक्रवर्ती सम्राट और कहां शम्शान का सेवक! उन्हें एक पल के लिए भी लगा होगा कि ईश्वर है भी या नहीं, उनकी सारी भक्ति, सारा सत्य, सारा धर्म कहां गया? लेकिन वो टिके रहे, उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा, अपना धर्म नहीं छोड़ा, और जब वो हर परीक्षा में खरे उतरे, तब ईश्वर ने उन्हें वो लोटाया, जो उन्होंने खोया था। और साथ में वो अमरकीर्ति भी दी, जो आज तक गाई जाती है।
ये कहानी हमें क्या सिखाती है? यही कि कृपा का मार्ग फूलों से नहीं, काटों से होकर गुजरता है। कृपा का अर्थ परिस्थितियों का आपके अनुकूल हो जाना नहीं है। कृपा का अर्थ है कि आप हर परिस्थिति में स्थिर और शांत रहना सीख जाएं।
जब आपका सब कुछ छिन जाता है, जब आप पूरी तरह से टूट जाते हैं। तब आपके अंदर से एक चीज का जन्म होता है, अहंकार का नाश। अहंकार, यानि मैं, मैंने ये किया, मेरा ये है, मुझे ये चाहिए, यही अहंकार वो दिवार है, जो आत्मा और परमात्मा के बीच खड़ी है, जब तक ये मैं जिन्दा है, तब तक वो प्रकट नहीं हो सकता।
ईश्वर जब कृपा करते हैं तो सबसे पहले इसी “मैं” पर प्रहार करते हैं वो आपको ऐसी परिस्थितियों में डालते हैं जहां आपका “मैं” चूर-चूर हो जाता है। जब आपकी बुद्धि काम करना बंद कर देती है। जब आपकी ताकत जवाब दे जाती है।
जब आपकी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं। तब आपको पहली बार ये एहसास होता है कि मैं कुछ नहीं हूँ, करने वाला कोई और है, यह एहसास होना कि मैं कर्ता नहीं हूँ! यही तो भक्ति की पराकाष्ठा है। यही तो समर्पण है, और जब यह समर्पण घटित होता है, जब आप पूरी तरह से हाथ खड़े कर देते हैं और कहते हैं।
हे प्रभु, अब मैं कुछ नहीं जानता, मेरा कुछ नहीं है, मैं भी आपका हूँ, और मेरा सब कुछ भी आपका है। अब आप ही संभालो, जैसे रखोगे वैसे रहूंगा|
बस उसी क्षण, उसी पल चमत्कार होता है। उसी क्षण, वो मौन जो आपको खाये जा रहा था, वो आपसे बात करना शुरू कर देता है। वो अकेलापन जो आपको डरा रहा था, वो उस परम सत्ता की उपस्थिति से भर जाता है। वो दुख जो आपको तोड़ रहा था, वो आनंद में बदलना शुरू हो जाता है।
ये वो बिंदु है, जहां कुम्हार रौंदना और मसलना बंद कर देता है, अब वो उस तैयार मिट्टी को अपनी चाक पर रखता है। अब निर्माण का असली काम शुरू होता है। भगवान अब आपके जीवन को अपने हाथों से एक नया आकार देना शुरू करते हैं।
लेकिन यहां भी एक रहस्य है। वो आपको वो आकार नहीं देंगे, जो आपने मांगा था। वो आपको वो आकार देंगे, जो आपके लिए सर्वोत्तम है। जो आपकी आत्मा के विकास के लिए आवश्यक है। हो सकता है आपने एक आलिशान महल माँगा हो और वो आपको एक शांत कुटिया दें ! क्यों ?
क्योंकि वो जानते हैं की महल में आपका अहंकार फिर से जाग जायेगा लेकिन कुटिया में आप हमेशा उनसे जुड़े रहेंगे | हो सकता है आप दुनिया पर राज करने की शक्ति मांगी हो। वो आपको लोगों के दिलों में प्रेम उत्पन्न करने की क्षमता दें। क्यों ? क्योंकि वो जानते हैं दुनिया पर राज तो अस्थायी है पर दिलों पर प्रेम का राज अमर है।
ये वो चरण है जब आपकी प्रार्थनाएं बदल जाती हैं। अब आप उनसे कुछ मांगते नहीं हैं। अब आप बस उन्हें धन्यवाद देते हैं। हर उस चीज के लिए जो उन्होंने दी और हर उस चीज के लिए भी जो उन्होंने छीन ली। क्योंकि अब आप समझ जाते हैं कि उनका छीनना भी उनके देने का ही एक हिस्सा था। उनका प्रहार भी उनके प्रेम का ही एक रूप था।
इस अवस्था में पहुँच कर भक्त को एक दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। उसे हर घटना के पीछे, हर व्यक्ति के पीछे उसी की लीला दिखाई देने लगती है। उसे समझ आ जाता है कि जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो हुआ अच्छा हुआ और जो होगा वो भी अच्छा ही होगा। उसे अपने शत्रु में भी ईश्वर का ही एक रूप दिखाई देता है, जो उसे कुछ सिखाने आया है। उसे अपनी असफलता में भी ईश्वर की ही कृपा दिखाई देती है, जो उसे सही मार्ग पर लाने के लिए घटित हुई।
ये समत्व की अवस्था है, जिसका वर्णन श्रीमत भगवत गीता में किया गया है। सुख, दुख, मान, अपमान, लाभ, हानि, सब में समान भाव रखना। लेकिन इस अवस्था तक पहुँचने का मार्ग हमारी पहली पीड़ा से होकर ही गुजरता है। उस पीड़ा से जब आपका सब कुछ बिखर रहा होता है।
तो अगली बार जब आपके जीवन में कोई बड़ी कठिनाई आए, जब लगे की सब कुछ समाप्त हो रहा है, जब लगे की भगवान आपकी सुन ही नहीं रहे, तो एक पल के लिए रुकियेगा। घबराने या शिकायत करने की बजाए, एक पल के लिए ये विचार अपने मन में लाईएगा, कहीं ये मेरे जीवन का अंत नहीं, बल्कि एक नए अध्याय की शुरुवात तो नहीं! कहीं ये दुर्भाग्य नहीं बल्कि सौभाग्य का रूप तो नहीं! कहीं ये भगवान की नाराज़गी नहीं बल्कि उनकी कृपा का पहला कठोर स्पर्श तो नहीं!
जरा सोचिये भगवान को क्या जरूरत है आपको दुख देने की?
वो आपको पीड़ा नहीं देते वो आपकी पीड़ा को हरते हैं। और कभी कभी शरीर में गहरे धंसे कांटे को निकालने के लिए एक और कांटा चुभाना पड़ता है। ये दूसरा कांटा चुभता तो है पर पहले वाले स्थाई दर्द से मुक्ति भी दिलाता है।
हमारे कर्म, हमारे संस्कार, हमारी वासनाएं ये सब वो गहरे धंसे कांटे हैं जो हमें जन्म जन्मांतर से पीड़ा दे रहे हैं। भगवान जो कृपा करते हैं तो इन ही कांटों को निकालने की प्रक्रिया शुरू करते हैं। और ये प्रक्रिया थोड़ी दर्दनाक तो होती ही है। वो आपका हाथ पकड़कर आपको उस आग के पास ले जाते हैं जिससे आप हमेशा डरते थे। आग, यानी सत्य की आग, ज्ञान की आग, वो आपको उस आग में धकेलते नहीं, बस उसके इतना करीब ले जाते हैं कि आपकी सारी अशुद्धियाँ, आपके सारे भ्रम जल कर राख हो जाएं।
जब सोना आग में तपता है तो मैल जल जाता है और कुंदन निखर आता है।
ईश्वर की कृपा की प्रक्रिया भी यही है। वो आपके अंदर के मैल, यानि काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को जलाते हैं, ताकि आपके अंदर छिपी हुई शुद्ध आत्मा, जो सोने की तरह मूल्यवान है, वो प्रकट हो सके।
तो सवाल ये नहीं है कि भगवान हमें दुःख क्यों देते है ? सही सवाल ये है की क्या हम उस दुःख में छिपे हुए उनके उद्देश्य को, उनके प्रेम को देख पाते हैं या नहीं? क्या हम उस कुम्हार के रौंदने में उसके बनाने की कला को पहचान पाते हैं या नहीं?
जब जीवन में सब कुछ अच्छा चल रहा हो, तब तो हर कोई परमात्मा को धन्यवाद दे सकता है। तब तो हर कोई कह सकता है कि मैं भक्त हूँ! असली भक्ति तो तब प्रकट होती है जब नाव तूफ़ान में फंसी हो। जब चारो ओर अंधेरा हो, और तब भी आपके दिल से ये आवाज निकले, हे भगवान, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है, तुम जो भी करोगे, मेरे भले के लिए ही करोगे। ये भरोसा ही वो धागा है, जो आपको उस कठन समय में टूटने नहीं देता। ये भरोसा ही वो नाव है, जो आपको भव सागर से पार ले जाती है।
और जब आप इस परीक्षा से गुजर जाते हैं, जब आप हर परिस्थिति में उन्हें धन्यवाद देना सीख जाते हैं। तब कृपा का दूसरा और असली चरण शुरू होता है। तब वो आपको वो शांति देते हैं, जिसे दुनिया की कोई दौलत खरीद नहीं सकती। तब वो आपको वो आनंद देते हैं, जो किसी बाहरी वस्तु पर निर्भर नहीं होता। तब वो आपको वो प्रेम देते हैं, जो कभी कम नहीं होता, जो कभी बदलता नहीं।
आपको बाहर से देखने पर शायद लगे कि आपके जीवन में कुछ खास नहीं बदला है। आप शायद उसी घर में रह रहे हो, वही काम कर रहे हो, लेकिन आपके अंदर सब कुछ बदल चुका होता है। आपका दुनिया को देखने का नजरिया बदल चुका होता है, आपकी चेतना का स्तर बदल चुका होता है। अब आपको सुख पाने के लिए कहीं भागना नहीं पड़ता। आप जहां होते हैं, वहीं सुख होता है।
अब आपको शांति खोजने के लिए पहाड़ों पर नहीं जाना पड़ता। आप भीड़ में भी शान्त रहते हैं, यही परमात्मा की सच्ची कृपा है। भौतिक समृद्धि नहीं, आध्यात्मिक समृद्धि, सांसारिक सफरता नहीं, आत्मिक विजय!तो
भगवान जिस पर कृपा करते हैं, सबसे पहले उसे तोड़ते हैं, उसे पूरी तरह से शून्य कर देते हैं। उसके सारे सहारे छीन लेते हैं, उसे नितान्त अकेला छोड़ देते हैं। वो ऐसा इसलिए करते हैं, ताकि वो व्यक्ति अपने झूठे आधारों को छोड़ कर, एक मात्र सच्चे आधार यानि परमात्मा को पकड़ ले।ताकि वो अपने अहंकार को गलाकर समर्पण को अपना ले।
ताकि वो अपनी छोटी छोटी इच्छाओं को त्याग कर उस परम की इच्छा में जीना सीख ले। ये एक दर्दनाक, भ्रमित करने वाली और अकेली यात्रा हो सकती है।
लेकिन जो इस यात्रा में श्रद्धा और विश्वविश्वास के साथ टिका रहता है। उसे अंत में वो मिलता है जिसकी कल्पना भी उसने नहीं की थी। उसे स्वयं परमात्मा मिल जाते हैं तो अपने जीवन के कठिन समय को एक श्राप की तरह मत देखिए!
उसे एक अवसर की तरह देखिए। एक मौका ये जानने का कि आपका विश्वास कितना गहरा है? एक अवसर अपने भीतर की शक्ति को पहचानने का ! उस परम सत्ता के और करीब आने का!
याद रखिए रात चाहे कितनी भी गहरी क्यों न हो सुबह अवश्य होती है। भट्टी की आग चाहे कितनी भी तेज क्यों न हो, सोना कुंदन बनकर ही बाहर निकरता है। और ईश्वर की परीक्षा चाहे कितनी भी कठिन क्यों न लगे, उसका अंतिम परिणाम हमेशा कृपा, आनंद और शांति ही होता है।
ये ज्ञान केवल पढ़ने के लिए नहीं है, ये अपने जीवन में अनुभव करने के लिए है, अपने आसपास देखिए, इतिहास को पढ़िये, संतों और भक्तों के जीवन को जानिये।
आपको हर जगह यही सत्य दिखाई देगा कि जिसे भी ईश्वर ने चुना है उसे पहले अग्निपरिक्षा से गुजरना ही पड़ा है! आशा है कि इस यात्रा ने आपके मन में चल रहे कई सवालों को शांत किया होगा।
और आपको एक नई दृष्टी मिली होगी। अगर आपको हमारा ये प्रयास पसंद आया, अगर इस ज्ञान ने आपके हृदय को छुआ है। तो इस पोस्ट को अपना प्रेम दें इसे लाइक करें और अपने मित्रों और परिवार के साथ शेर करें।ता
कि ये दिव्य ज्ञान अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच सके और उनके जीवन में भी प्रकाश ला सके। और भविष्य में भी ऐसे ही गहरे और जीवन को बदलने वाले ज्ञान से जुड़े रहने के लिए हमारे पोर्टल Hindiaup को सब्सक्राइब करना ना भूलें, आप सभी के अंदर बैठे परमात्मा को मेरा प्रणाम|